वृत्तांत- (3) कोई उही म दहावत हे, कोई इही म भंजावत हे : भुवनदास कोशरिया

Bhuvan Das Kosariyaकुंवार लग गेहे ।सब धान के बाली ह, छर छरा गे है ।बरखा रानी के बिदाई होगे हे ।जगा- जगा काशी के फूल ह, फूल गे हे ।मेढ ह ,भक- भक ल बुढवा के पाके चुंदी बरोबर दिखत हे।ऊपर खेत म दर्रा फाट गे हे ।धान ल, ठन ठन ल पाके बर एक सरवर पानी के अउ असरइया हे ।अब का गिरही ? रथिया तो छिटिक चंदैनी अंजोर रीहिस हे ।बदली ह छट गे हे ।एक पिछौरी के जाड शुरू होगे हे ।शीत बरसे लग गेहे ।रुस- रुस, रुस -रूस गोरसी ह ,अब्बड सुहावत हे ।धान के संग उंहारी उतेरे के बढिया पाग आये हे ।मुही पार के आखिरी जुगुत के बेरा हे । कहीं पानी रेंगाय के तो कहीं मुही फोरे के ।
आज घासी ह बाहरा डोली जात हे ।मेढे मेढ एक पइंया रस्ता हे। सरर -सरर पुरवाही चलत हे ।बाहरा डोली म दुबराज धान बोवाय हे ।महर -महर महकत हे ।ओकर सुगंध ह खार भर फैल गे हे ।फर्लांग भर के आदमी मन घलो जब पुरवाही के दिशा ह बांहकय त सुगंध म आ…..हा……हा कहिके सांहस भर भर लेवय । कई झन तो कहां से माहक आवत हे , कहिके बाहरा डोली के धान ल देखे बर जाय। धान के भीरा अउ छर छर ल निकले बाली ल देख के तीर- तीर के गांव म घलो चर्चा हे ,कि ये बछर गोपाल ह ,अपन घर के रउती घासी ल सौपे हे ,तब ले उंकर घर के सबे काम अउ किसानी बियारी ह ,आगू के आगू होवत हे ।
घासी ह ,सबे खेत के मुही पार ल देखत हे ।मंझोत म बाहरा डोली हे ।मुही के तीर तेंदू के पेड हे। एकरे छइंहा म घासी ह खडा होइस। कुंवांर के घाम ये ,घमा गे रीहिस, पसीना म बदन तर- बतर होगे रहिस । घासी पेड के छ्इहा म बइठ के सुस्तावत हे ।,फुर- हूर ,फुर- हूर पुरवाइया चले लगिस ।पसीना सुखे लगिस ।तब घासी के मन ह, थोरकुन थीर लागिस ।त देखथे मुही तीर म, दू ठो मछरी कइसे खेलत हे ,जिंदगी के मजा लेवत हे ।देखते- देखत खेत के पानी अटावत हे, मछरी के खेलई ह बिगडगे ,अब खलबलावत हे ।घासी के नजरे नजर म अंतरमन म मछरी के मरना ह ,झके लग गे कि जल बिना मछरी कइसे फडफडाही अउ तडफ तडफ के कइसे मर जाही ।इही बीच घासी के कान म मछरी के तरफ से एक आरो आथे….चित म अन्तर्ध्वनि गूंजथे……..कि ” हमू मन तोरे सहींन मनखे रहेन ,रहेन दूनो परानी , का करनी करे रहेन मछरी के मिलिस जिंदगानी ।”
घासी ह ध्यानस्थ हो जथे , चिंतन के समंदर म ,विचार के ज्वार भाटा ह ,पहाड जैसे ऊपर नीचे होवत हे ।सत के खोज ह ओकरो ल आगे उठत हे ।
घासी …ये घासी …के आवाज म ,घासी ह झकना जथे ,। आंखी ह बडबड ल खुल जथे ,देखथे मेढ भर गांव के आदमी मन सकलाय हे ।भीड लगे हे । बेरा ह ,उत्ती के ह, बूडती म उतरगे हे ।घासी, घर नइ लहुटे ये ।सफुरा ह ,गोपाल के घर पहुच जथे ।सफुरा ल देखत, गोपाल के जीव ह, धक ल हो जथे । घासी ह, बाहरा डोली ल अभी ल नइ आय ये । गोपाल के मन ह ,नइ माढय ,जिपरहा खेत ये ,कही अनहोनी मत हो जाय कहिके ,सब नौकर चाकर अडोसी पडोसी अउ गांव के बडे बडे सियान मन ल लेके बाहरा डोली गिस । त उंहां देखथे ,घासी ह ध्यान म मगन हे।
घासी ह सब ल देख के कहिथे …तुमन सब कइसे आय हव गा ।गोपाल ह ,घासी के आगू म आ के कहिथे …..दुहानी के बेरा ल ,तेंह खेत दे खे बर आय हच ,अउ बरदी दरसे के बेरा ह होगे हे ,अभी ल का करत हस ।अउ ये ह का ये ? तोर आगू म दू दू ठन मछरी ह मरे परे हे । घासी ह कहिथे …..हाँ ! गोपाल इहीच ल देखत अउ जिनगी के बारे म गुनत मोर सुद्ध बुद्ध ह बिसरागे ।मति ह हजागे ।
मोर आंखी के सामने कइसे ये मछरी ह खेलत रहिस ,अउ देखते देखत का से का होगे ? खेत के पानी अटागे । मछरी ह खलबलावत रहिस ,फडफडावत रहिस ,फेर तडफ तडफ के चित्त हो गे । पता नही का होगे ? अब तो मूर्दा होगे । अब येमा अइसे का चीज नइये ? जेमा ये ह हालत नइये ,न डोलत नइये ।पहिली येमा का चीज रहिस ? तेमा बढिया खेलत रहिस ।
” येमा का रहिस? अउ ओ ह कहाँ गिस ? इही ल कोई तो मोला बता दव ?
का,ये ,जे कर कहाँ हे ठौर,
अउ कहाँ हे ठिकाना ।
कइसे होथेे येकर आना ,
अउ कइसे होथे जाना ।
घासी के बाणी सुन के सब जयकारा करे लगथे…….
घासी बाबा की जय …..
घासी बाबा की जय ।
जयकारा होय लगथे ……..
पूरा खार कले चुप हो जथे । कोन ओला बता सकही ?सुरूज ल, दीया दिखा सकही ?समंदर म ,पानी छलका सकही ? नहीं ।दुबराज धान के खुशबू थिर होगे । लहरावत धान के बाली ह ,सोझ होगे ।खसलत सूरूज ह ,ठाढ होगे ।पेड के चिराई चिरगुन मन शांत होगे ।डारा, पाना, हिलना डुलना भूल गे ।सबके सब ध्यानस्थ होगे ,घासी के वचन ल सुने बर …….. ।
घासी ह फेर कहिथे ……हमर सब के जिनगानी ह एक पहेली ये, एक अजब गजब जनऊला ये । जेला बताये बर मनखे इहां ,जब ले जनम ले हे ,तब ले एक से एक मनखे मन उलफुलावत हे । ऋषि ,मुनि ,संत, महंत ,पोप ,पीर ,फकीर ,गुरू ,योगी, जोगी ,ध्यानी ,ज्ञानी सबके सब कुछ के कुछ बतावत हे । जेकर जइसे मन म ,आवत हे उही म दहावत हे ।धरम, करम ,यज्ञ हवन ,यंत्र तंत्र, पूजा पाठ करके कुछ इही म भंजावत हे ।कोई नाम पान ,दान ,बलिदान ,सुमरन मंत्र, ज्ञान म लहावत हे ।ढोग ढकोसला अउ अंधविश्वास म भरमावत हे ।कोई लडत हे ,कोई लडावत हे ,मनखे ह, मनखे के खून बहावत हे ।अपन अपन पीछे चलाय बर ,सब उभरावत हे ।ये दुनिया ह ,भेड धसान ये ,जिही तरफ देखबे उही तरफ सब जाय बर उम्हियावत हे ।अब मोला तो कुछ कुछ समझ आवत हे ,सत के रस्ता ह मोला कुछ कुछ झकावत हे ………
“कोई उही म दहावत हे ,
कोई इही म भंजावत हे ।
सच्च के रस्ता ह मोला ,
कुछ कुछ झकावत हे ।
घासी बाबा की जय …..
घासी बाबा की जय …
जयकारा करत सब घासी के संगे संग गांव गिरोद की ओर चले जाथे ……
“जयसतनाम”

भुवनदास कोशरिया
भिलाई
9926844437

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